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Sunday, August 11, 2024

विलुप्त हो रहे भारत के पर्व और त्यौहार आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

भारत त्योहारों का देश है और हर महीने कोई न कोई त्योहार पड़ता रहता है ,कुछ राष्ट्रीय पर्व है कुछ हिन्दू धर्म के सांस्कृतिक पर्व ,सभी त्योहारों को ग्रामीण महिलाएं उत्साह उमंग से मनातीं आई हैं,पर अब कुछ त्योहारों में शिक्षित महिलाओं का ध्यान कम जा रहा है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ पूरे वर्ष बहुत ही उत्सव मनाया जाता है। हर महीने में पर्व या त्योहार आते हैं जो बहुत ही खुशी से धूम-धाम से मनाए जाते हैं।  हमारे देश की अभी भी संस्कृति और धार्मिकता और राष्ट्रीयता अच्छी है। यहां कई धर्म के लोग रहते हैं जिसमे हिन्दू धर्म प्रमुख है।

हिन्दुओ का सबसे बड़ा त्योहार दीपावली है इसके अलावा मकर संक्रांति , बसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, हिन्दू नवबर्ष,चैत्र नवरात्र, श्री रामनवमी ,श्री हनुमान जयंती,गुरु पूर्णिमा, नागपंचमी, रक्षाबंधन ,श्री कृष्ण जन्माष्टमी, पितृपक्ष, आश्विन नवरात्र, दशहरा, करवा चौथ , कार्तिक पूर्णिमा, आदि प्रमुख त्योहार हैं। इसाइयों के प्रमुख त्योहार नववर्ष , गुड फ्राइडे, और क्रिसमस डे हैं । मुस्लिमों के त्योहार ईद और बकरीद हैं।
    श्रावण शिव जी को समर्पित महीना है। इस माह शिवजी का जलाभिषेक किया जाता है। कांवर के रंग बिरंगे परिधान में प्रकृति पूरी तरह हरी भरी दिखती है। सावन के महीने में पुत्रियाँ ससुराल से अपने माके आती थीं। हैं। गुड्डे – गुड़ियों के खेल होते थे, पेडों पर झूले पड़ते थे और साथ ही सावन कजरी और झूले के गीत बड़े झूम के गाये जाते थे। पूरा का पूरा वातावरण मधुर गीतों से गुंजायमान रहता था ।
     श्रावण माह में नागदेवता की पूजा बड़े विधि  विधान के साथ की जाती है। बहनें भाइयों के लिए गुड़िया गांव के मैदान में फेंकने जाती हैं। भाई गुड़िया की पिटाई डंडे से करते हैं। फिर पिट चुकी गुड़ियों को जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। लड़किया अपने गांव के बच्चों को भीगे चने और अन्य पकवान खिलाती थी, जो अब समाप्त होने के कगार पर है।
     गांवों के मैदानों में मेले जैसा उत्सव रहता था। पुरुष अखाड़े और कुश्ती में जोर आजमाइश करते थे। कुश्ती और गुड़िया के कार्यक्रम के बाद बहनें अपने भाइयों को पान (ताम्बूल) खिलाती थी। हर्षोल्लास के बीच सभी अपने परिजन के साथ घर लौट आते थे। बहनें झूले झूलना शुरू करती थी, एक बार फिर सावन के गीतों से गांव झूम उठते थे।
       अब हमारे यह स्थानीय पर्व धीरे- धीरे टीवी, सोशल मीडिया और आधुनिकता की चकाचौंध में गायब होते जा रहे हैं। कांवेंट के विद्यालय केवल ईसाई त्योहार को वरीयता देते हैं। भारतीय पर्व धीरे धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। पहले छोटे उत्सवों होली दीवाली रक्षा बंधन और श्री कृष्ण जन्माष्टमी आदि पावन अवसर पर पूरा गांव इकट्ठा हो जाता था । अपनी खुशियां बाटता था। सबका साथ साथ आयोजन होता रहता था।अब नये ज़माने में ऐसा कोई त्यौहार नहीं जिस पर पूरा गांव इकट्ठा हो सके। हमारी प्राचीन परंपरा विलुप्त होती जा रही है। उसका एक कारण है कि पहले त्योहार कृषि किसानी
को प्रोत्साहित करते थे, उनसे गहरा जुड़ाव था। हमारे त्योहार में जानवरों को भी महत्व दिया जाता था। लेकिन अब न किसानों का किसी को ध्यान है और न जानवरों की सुधि। बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है। गाय भी जर्सी पाली जाने लगी है। भैंस भी कोई कोई पाल ले जा रहा है। प्रायः सबकी दौड़ नौकर बनने और शहरों में बसने की हो गयी है।
       शिक्षा, सोच, सुख, समाज, संस्कार और सम्बन्ध सब बदल गये हैं। शहरी सोच और सब नशायुक्त गुटका, तम्बाकू और शराब सब पर हावी है। सामुदायिकता का क्षरण हो चुका है। उत्सव, त्यौहार के मायने हमारे लिए बदल गये हैं। श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष भले नहीं पता हों पब, सिनेमा, बार, न्यूक्लियर परिवार क्रिसमस और ईद का त्यौहार हमें अलबत्ता अच्छे से याद है।
बर्थ डे अनवरसरी प्रायः हर सदस्य की मनाई जाने लगी है। टीवी मोबाइल जो कुछ परोस रहा है लोग इस तक ही सिमटते जा रहें हैं।
     इन त्योहारों के मौसम में मेरा युवा पीढ़ी से यही निवेदन है कि हम अपनी भारतीय संस्कृति को बरकरार रखें। अपने त्योहार उसके महत्व को भी समझे। जहां तक सम्भव हो, आप कहीं भी हो, कितने भी व्यस्त हो, लेकिन त्योहार पूरा परिवार एक साथ मनाए। इससे बहुत बड़ा असर हमारी आने वाली पीढ़ी पर पड़ेगा और परिवार भी, रिश्ते भी टूटने से बचेंगे।साथ ही हमारी लुप्त होती कलाएं, संस्कृति , छोटे- छोटे त्योहार सब जीवित रहेंगे। हमारे बुजुर्ग जो ज्यादातर गांव में, या बच्चों के विदेश में रहने के कारण, अकेले भी रहते है, आपको सपरिवार देखने से,त्योहार मनाने से, कुछ दिन एक साथ बिताने से खुश हो जाएंगे और उनकी उम्र भी बढ़ जाएगी।

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