दो चार दिनों से
जिंदगी से जंग है
नाक,कान,गला
सब कुछ बेरंग है।।
आँखों की जगह नाक से
मरासिम की बूंदें
कभी एक साथ कभी
झटके से निकले।।
जिंदगी भी घुट रही
हड्डियां भी टुट रही
लिखाई, पढाई सभी
कुछ बंद है
समय की गति भी
कुछ मंद है।।
सर की फटफटी से
खामोशी में खलल है
बाहर के संगीत की धुन
अंदर के ताल से बेदखल है।।
कभी छींक की बुदबुदाहट
कभी कान से सरसराहट
कभी बिन कहे गूंजती
कदमों की आहट।।
इन जिद्दोजहद की जिद्द
मेरी हौसले की जिद्द
में चल रही लडाई हैं
सोचती हूँ यह सब जला दूँ
अरमानों की कढाई में।।
बारंबार यह मेरे कार्य में
बने न बाधा
बहुत दूर का सफर है और
समय बचा न ज्यादा।।
ईश्वर तुमसे इन सभी से
रिहाई नहीं मांगती
हौसले और हिम्मत की
दवा मैं हूँ चाहती।।
बन जाओं जज़्बा मेरा
यह बाढ बहा न ले जाएं
समस्याओं की आंधी मुझे
एक इंच भी हिला न पाएं।।
जगदीश कौर
प्रयागराज
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