बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है
यहाँ हर पल.सुख पैमाने मे मिलता है
रिश्तों में नित नया मुखौटा दिखता है
सिर्फ बातों में ही अपनापन टिकता है
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।।
घर सिर्फ ताजमहल सा दिखता है
कृत्रिम नुमाइश की इस नगरी में
मेरा सुख ताबूत में बन्द दिखता है
सच मे दिन रात प्राण,मेरा सिसकता है
बाबूजी! मेरा यहां दम घुटता है।
हर तरह के रंगों का दौड़.दिखता है
हरियाली सिर्फ दीवारों पर दिखती है
जमीं हर तरफ ढकी ढकी सी दिखती है
रंग बिरंगा हर शख्स फीका दिखता है
पर हर रंग थका थका सा दिखता है।
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।
यहां बालू,पत्थर,ईंट का जंगल दिखता है
शहरी फैशन में घूंघट.सिमटता दिखता है
हैलो,हाय में रिश्ता बाय बाय सा दिखता है
क्या बोलूं? मेरा राग संस्कार घुटता है।
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।
घर में आंगन,कहीं नहीं दिखता है
संस्कारों का सावन,सूखा सा लगता है
सावन की कजरी, झूला, पेंग नहीं दिखता है
मेंहदी भी भाभी, ननद बिन फीकी लगती है।
यहां सुन्दर पर्दों में सब खोयी सी लगती है
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।
दरवाजों का रौनक,चौखट भी उजड़ा दिखता है
पीपल,बरगद,छांव नीम का सपना सा लगता है
मीठे पोखर,बहती दरिया बिन सब सूना लगता है
भौकाली सागर का खारापन, हर तरफ दिखता है।
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।
मौनी,सूपा,ओखल,जांँता नहीं कहीं दिखता है
चूल्हा,चौकी,बेलन संग चिमटा मौन सा दिखता है
कोयल,कौवा,गौरैया बस टी वी में उड़ते दिखते हैं
बाग,बगीचा,खेत खलिहान,बिन सब सुना लगता है
बाबूजी! यहां मेरा दम घुटता है।
सुख का अनुभव मन से, बाहर क्यों जुड़ता है
प्रकृति से जुड़ना, कच्ची भीति सा क्यों लगता है
विकास की दौड़ में जड़ बोझिल सा क्यों लगता है ?
सच कहूं! मिट्टी की सोंधी खुशबू बिन दिल नहीं लगता है
बाबूजी! मेरा दम घुटता है।
कुन्दन वर्मा "पूरब"
गोरखपुर उत्तर प्रदेश
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